दिल का हर ज़ख़्म मोहब्बत का निशाँ हो

दिल का हर ज़ख़्म मोहब्बत का निशाँ हो जैसे 
देखने वालों को फूलों का गुमाँ हो जैसे 

तेरे क़ुर्बां ये तेरे इश्‍क़ में क्या आलम है
हर नज़र मेरी तरफ़ ही निगराँ हो जैसे 

यूँ तेरे क़ुर्ब की फिर आँच सी महसूस हुई 
आज फिर शोला-ए-एहसास जवाँ हो जैसे 
दिल का हर ज़ख़्म मोहब्बत का निशाँ हो जैसे 
देखने वालों को फूलों का गुमाँ हो जैसे 

तेरे क़ुर्बां ये तेरे इश्‍क़ में क्या आलम है
हर नज़र मेरी तरफ़ ही निगराँ हो जैसे 

यूँ तेरे क़ुर्ब की फिर आँच सी महसूस हुई 
आज फिर शोला-ए-एहसास जवाँ हो जैसे 

तीर पर तीर बरसते हैं मगर ना-मालूम
ख़म-ए-अबरू कोई जादू की कमाँ हो जैसे 

उन के कूचे पे ये होता है गुमाँ ए ‘उनवाँ’
ये मेरे शौक़ के ख़्वाबों का जहाँ हो जैसे



जीने का तेरे ग़म ने सलीक़ा सिखा दिया 
दिल पर लगी जो चोट तो मैं मुस्कुरा दिया 

टकरा रहा हूँ सैल-ए-ग़म-ए-रोज़गार से 
चश्‍म-ए-करम ने हौसला-ए-दिल बढ़ा दिया 

अब मुझ से ज़ब्त-ए-शौक़ का दामन न छूट जाए 
उन की नज़र ने आज तकल्लुफ़ उठा दिया 

अपनी निगाह में भी सुबुक हो रहा था मैं
अच्छा हुआ के तुम ने नज़र से गिरा दिया 

‘उनवाँ’ निगाह-ए-दोस्त का अंदाज देख कर 
मैं अपने हाल-ए-ज़ार पे ख़ुद मुस्कुरा दिया

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